Class 10th Political Science chapter 1 Summary
भारत में लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है जिसमें प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार और स्वतंत्रता मिलती है। लोकतंत्र का उद्देश्य सामाजिक न्याय, समानता और विकास की दिशा में काम करना है। हालांकि भारत में सत्ता की साझेदारी में विभिन्न जातियों, धर्मों और लिंगों के बीच असमानताएँ अभी भी हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के उद्देश्यों को चुनौती देती हैं।
इस अध्याय में हम भारत में लोकतंत्र में सत्ता में साझेदारी, सामाजिक विभाजन, जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता, और लैंगिक मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
परिचय
भारत का संविधान लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलते हैं। संविधान का उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना है जहां हर नागरिक को धर्म, जाति, लिंग, और भाषा के आधार पर भेदभाव के बिना समान अवसर मिलें। लेकिन, भारत के समाज में जाति, धर्म और लिंग आधारित भेदभाव आज भी जड़े जमा चुका है, जो सत्ता में साझेदारी को प्रभावित करता है।
लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद
लोकतंत्र का आधार द्वन्द्ववाद पर आधारित है, जिसका मतलब है कि विभिन्न विचार और दृष्टिकोण एक-दूसरे से टकराते हैं, और इससे एक संतुलित निर्णय तक पहुंचने की प्रक्रिया होती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं में यह द्वन्द्ववाद तभी सकारात्मक रूप ले सकता है जब विभिन्न वर्गों, जातियों, और धर्मों के हितों का सही तरीके से प्रतिनिधित्व किया जाए।
संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 15
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जमावड़ा करने का अधिकार और आंदोलन करने का अधिकार दिया गया है। इसके साथ ही अनुच्छेद 15 यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, लिंग या उत्पत्ति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। ये अनुच्छेद भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी संरचना को मजबूत करते हैं, ताकि हर नागरिक को समान अधिकार मिल सकें।
भारतीय संविधान को डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता वाली संविधान निर्माण समिति ने लिखा। हालांकि, संविधान के लेखन में कई अन्य प्रमुख नेताओं और संविधान निर्माताओं का योगदान था, जिनमें पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे व्यक्तियों का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था और यह दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप
भारत में सामाजिक विभाजन बहुत गहरे हैं। यह विभाजन जाति, धर्म, लिंग, और सांस्कृतिक परंपराओं के आधार पर किया जाता है। भारतीय समाज में जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता और लैंगिक भेदभाव लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को प्रभावित करते हैं। इन विभाजनकारक तत्वों के कारण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता में साझेदारी में असमानताएँ उत्पन्न होती हैं।
सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पत्ति
भारत में सामाजिक भेदभाव और विविधता की जड़ें ऐतिहासिक रूप से गहरी हैं। जाति व्यवस्था, धार्मिक मतभेद और सांप्रदायिक राजनीति ने भारतीय समाज में भेदभाव को जन्म दिया। इससे सत्ता की साझेदारी में असमानताएँ उत्पन्न हुई हैं। हालांकि संविधान ने भेदभाव को समाप्त करने की कोशिश की, फिर भी समाज में कई स्तरों पर असमानताएँ बनी हुई हैं।
सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर
सामाजिक विभिन्नता का मतलब है कि समाज में विभिन्न जातियाँ, धर्म, और सांस्कृतिक पहचान मौजूद हैं। वहीं, सामाजिक विभाजन का अर्थ है जब ये विभिन्नताएँ असमानताओं, भेदभाव और संघर्ष का कारण बन जाती हैं। भारत में जाति, धर्म, और लिंग के आधार पर विभाजन समाज के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करता है, जिसमें राजनीति भी शामिल है।
जाति का राजनीति पर प्रभाव
भारत में जाति राजनीति पर गहरा प्रभाव डालती है। चुनावों में जातीय समीकरणों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन और राजनीतिक रणनीतियाँ तय होती हैं। विभिन्न जाति समूहों के बीच जातिवाद की राजनीति आम बात है, और यह सत्ता में साझेदारी के तरीके को प्रभावित करती है। जाति आधारित राजनीति के कारण विभिन्न जातियाँ एक दूसरे से असंतुष्ट हो सकती हैं, और चुनावी नतीजे जातीय पहचान पर आधारित हो सकते हैं।
सामाजिक विभाजन के तीन निर्धारक तत्व
भारत में सामाजिक विभाजन के तीन मुख्य निर्धारक तत्व हैं
- जाति: यह भारत में समाज की सबसे पुरानी सामाजिक संरचना है, जो अब भी राजनीति और समाज पर प्रभाव डालती है।
- धर्म: विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच संघर्ष और असहिष्णुता राजनीति में अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दा बनती है।
- लिंग: महिलाओं के अधिकारों और उनके प्रतिनिधित्व के मुद्दे भी भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सामाजिक विभाजन में जाति धर्म और लिंग विभेद के स्वरूप
भारत में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर सामाजिक विभेदन विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं। जाति व्यवस्था के कारण उच्च और निम्न जातियों के बीच भेदभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है। धर्म के आधार पर, विशेष रूप से हिंदू-मुसलमान के बीच विभाजन कभी-कभी हिंसा और सांप्रदायिक तनाव का कारण बनता है। इसके साथ ही, महिलाओं के अधिकार और उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व की स्थिति भी एक जटिल मुद्दा है।
जातिगत असमानताएं और वर्ण व्यवस्था
जातिगत असमानताएँ भारतीय समाज की संरचना का एक अहम हिस्सा हैं। वर्ण व्यवस्था ने समाज में असमानताएँ और भेदभाव को और गहरा किया है। हालांकि संविधान ने इसे समाप्त करने की कोशिश की, फिर भी जातिवाद आज भी भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रभावी है। सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ इस भेदभाव को और बढ़ावा देती हैं।
गरीबी रेखा में नीचे जीवनवसर करनेवालों का प्रतिशत अनुपात (वर्ष 1999-2000)
1999-2000 के आंकड़ों के अनुसार, विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच गरीबी रेखा से नीचे जीवनवसर करने वालों का प्रतिशत अनुपात निम्नलिखित है:
समूह | ग्रामीण क्षेत्र (%) | शहरी क्षेत्र (%) |
---|---|---|
अनुसूचित जनजातियाँ | 45.8 | 35.6 |
अनुसूचित जातियाँ | 35.9 | 38.3 |
अन्य पिछड़ी जातियाँ | 27.0 | 29.5 |
मुसलमान अगड़ी जातियाँ | 26.8 | 34.2 |
हिन्दू अगड़ी जातियाँ | 11.7 | 9.9 |
ईसाई अगड़ी जातियाँ | 5.4 | 0.0 |
ऊँची जाति के सिख | 0.0 | 4.9 |
अन्य अगड़ी जातियाँ | 16.0 | 2.7 |
सभी समूह | 27.0 | 23.4 |
राजनीति में जाति
भारत में जाति आधारित राजनीति गहरे प्रभाव डालती है। चुनावों में जातीय समीकरण, जातिवादी दलों और जाति आधारित नीतियाँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। जाति आधारित राजनीतिक रणनीतियाँ दलों को अपने वोट बैंक को साधने में मदद करती हैं, लेकिन इससे सामाजिक विभाजन भी बढ़ता है।
चुनाव की जातीयता में ह्रास की प्रवृत्ति
हालांकि जातिवाद की राजनीति में वृद्धि हुई है, फिर भी समय के साथ इसमें ह्रास की प्रवृत्ति भी देखने को मिली है। कई स्थानों पर जातिवाद आधारित राजनीति का प्रभाव कम हो रहा है, और राजनीतिक दल अब विकास, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों को प्रमुखता देने लगे हैं।
धर्म संप्रदायिकता एवं राजनीति
धर्म संप्रदायिकता भारतीय राजनीति में एक गंभीर समस्या बन चुकी है। धार्मिक समूहों के बीच विभाजन और सांप्रदायिक तनाव, विशेष रूप से हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच, राजनीति में एक बड़े मुद्दे के रूप में उभरते हैं। हालांकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, लेकिन राजनीति में धर्म का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
लैंगिक मसले और राजनीति
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भारतीय राजनीति में एक अहम मुद्दा है। महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। फिर भी महिलाओं की राजनीति में भागीदारी अभी भी सीमित है। लैंगिक समानता के लिए और भी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि महिलाएँ भी राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकें।
निष्कर्ष
भारत में लोकतंत्र की सफलता का मुख्य आधार सत्ता की समान साझेदारी है, जिसमें जाति, धर्म, और लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करना आवश्यक है। भारतीय समाज में असमानताएँ और विभाजन के बावजूद, संविधान ने समानता और न्याय के सिद्धांतों को सुनिश्चित किया है। सत्ता में साझेदारी का लक्ष्य एक ऐसा समाज बनाना है जहां सभी वर्गों के नागरिकों को समान अवसर मिलें, और उनके अधिकारों की रक्षा हो।
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